आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
(म)
मंगल गान सुनाती चली, गंगा की धारा।
लहराती हुलसाती चली, गंगा की धारा॥
मंगलमय भगवान् मुदित मन, दो मंगल वरदान।
मंगलमय यह सृष्टि तुम्हारी, मंगल मूरत सब नर-नारी।
देव मनुज सब मंगलकारी, तेरा अमिट विधान॥
मंत्री गुरु अरु वैद जो, प्रिय बोलहि भय आस।
राज, धरम, तन तीनि कर, होइ बेग ही नास॥
मकराकृति गोपाल के, कुण्डल सोहत कान।
फँस्यो समर हिय गढ़ मनो, ड्योढ़ी लसत निसान॥
मच्छ बिकाने सब चले, धीवर के दरबार।
अँखिया तेरी रतनारी, तू क्यों पहिरा जार॥
मच्छ होय नहि बाँचिहो, धीवर तेरो काल।
जेहि-जेहि डाबर तुम फिरो, तहँ-तहँ मेले जाल।।
मथत मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥
मथुरा जाउ भाव द्वारिका, भावै जाउ जगन्नाथ।
साधु संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥
मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।
श्रवण द्वार होय संचरे, सालै सकल शरीर॥
मन कहता है इस धरती पर, होवे शत शत बार जनम।
कर दें हम बलिदान सभी कुछ, कहकर वन्देमातरम्॥
मन कहै कब जाइये, चित्त कहै कब जाव।
छौ मास के हीड़ते, आध कोस पर गाँव॥
मन का मैल अगर ज्यों का त्यों।
लाख सँवारो तन क्या होगा।।
मन गयन्द माने नहीं, चले सुरति के साथ।
महावत विचारा क्या करे, जो अंकुश नाहीं हाथ ॥
मन भर के बोइये, घुघुची भर नहि होय।
कहा हमार माने नहीं, अन्तहु चले बिगोय॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै ज्योति छिपाणि॥
मन माया की कोठरी, तन संशय का कोट।
विषहर मन्त्र माने नहीं, काल सर्प की चोट॥
मन माया तो एक है, माया मनहि समाय।
तीन लोक संशय परी, मैं काहि कहों समुझय॥
मन मैला ही रहा अगर तो, उजला तन बेकार है।
जनहित में जो लगा न जीवन, वह जीवन बेकार है।।
मन सायर मनसा लहरि, बूढ़े बहुत अचेत।
कहहि कबीर ते बाँचि है, जाके हृदय विवेक॥
मन स्वारथी आप रस, विषय लहर फहराय।
मन के चलाये तन चलै, जाते सरबस जाय॥
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोई॥
मनुज तन केवल माटी नहीं, मनुज को यह समझाना है।
मनुज बस हाड़ मांस ही नहीं, प्राण से भरा खजाना है।।
मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान,
यही संकल्प हमारा।
विचार क्रान्ति अभियान इसी को कहते युग निर्माण,
यही संकल्प हमारा।।
मनोभूमि इतनी सूखी माँ! हुई शुष्क पाषाण।
इस बन्जर में कहीं न दिखते, माँ! लहराते प्राण॥
मरजादा दूरहि रहे, तुलसी किये बिचार।
निपट निरादर होत है, जिमि सुरसरि बर बारि॥
मरत प्यास पिंजरा परौ, सुवा दिनन के फेर।
आदर दे दे बोलियत, बायस बलि की बेर॥
मरते-मरते जग मुवा, बहुरि न किया विचार।
एक सयानी आपनी, परबस मुवा संसार॥
मरते-मरते जग मुवा, मुये न जाना कोय।
एसत होय के ना मुवा, जो बहुरि न मरना होय॥
मलयागिरी के बाँस में बेधा ढाँक पलास।
बेना कबहु न बेधिया, जुग-जुग रहिया पास॥
मलयागिरि के बाँस में, वृक्ष रहा सब गोय।
कहबे को चन्दन भया, मलयागिरि न होय॥
मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहि हाथ।
चारिउ युग का महातम, मुखहिं जनाई बात॥
महकना फूल सी बनकर, कटीली डाल पर खिल तुम।
निभाना लाज मर्यादा, सदा बेटी पिता की तुम॥
महाकाल के अवतारी तुम, अजर-अमर वरदानी।
नूतन सृष्टि बनाकर तुमने, लिख दी अमर कहानी॥
महाव. ल को नये सृजन का, नव अभियान रचाना है।
नारी को फिर विश्व मञ्च पर, करतब नये दिखाना है।।
माँगण मरण समान है, बिरला बचै कोई।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मॅगावै मोहि॥
माँ गायत्री की गाथा, कहते हैं श्रीराम रे।
कर उपकार सभी का जग में, मिल जाये भगवान रे॥
माँ गायत्री प्रज्ञा माता, दे दो हमें सहारा।
बेड़ा पार कीजिए, हमको तार दीजिए॥
माँग मधुकरी खात ते. सोवत गोड पसारि।
पाप प्रतिष्ठा बढि परी, ताते बाढ़ी सारि॥
माँगे घटत रहीम पद, कितो करो बढ़ि काम।
तीन पैड़ वसुधा करी, तऊ बावने नाम॥
माँगे मुकरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ।
माँगत आगे सुख लह्यो, तै रहीम रघुनाथ॥
माँ तू प्रेम सुधा बरसा दे।
बूंद-बूंद से सूखी कलियाँ-मन की आज खिला दे॥
माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं।
श्रद्धा पूरित होकर माँ, दो अश्रु चढ़ाते हैं।।
माँ दो हमको हृदय उदार। अपने जैसा भर दो प्यार॥
माँ बस यह वरदान चाहिए। अपनेपन का भान चाहिए॥
माँ मत रहो उदास, उदासी दूर भगायेंगे।
हिम नग का विश्वास, हृदय में पुनः जगायेंगे।।
माँ शरण में आये हैं, माँ हम पे कृपा कर दो।
माँ शीश झकाये हैं, माँ हम पे दया कर दो॥
माँ शारदे वर दे हमें, तेरे चरण का प्यार दे।
भव-बन्ध के तूफान से, माता तू हमको तार दे॥
माताजी आयी बड़े भाग्य हमारे।
तृप्त हुए नयन किए दरश तुम्हारे॥
मातु पिता गुरु स्वामी सखा, सिर धरि करहि सभाय।
लहेउ लाभ तिन्ह जनम कर, नतरु जनम जग जाय॥
मान राखिबो माँगिबो, पिय सो नित नव नेह।
तुलसी तीनिउँ तब फवै, जो चातक मत लेह॥
मानव में देवत्व जगाने, घर-घर अलख जगायेंगे।
नया सबेरा नया उजाला, इस धरती पर लायेंगे।।
मानव जीवन इस जगती का, सर्वोत्तम उपहार।
सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे सँवार॥
मानवता का पतन देखकर, आज धरा अकुलाई है।
देव शक्तियों ने मिल-जुलकर, दुर्गा शक्ति जगाई है॥
मानुष जन्म दुर्लभ है, बहरि न दूजी बार।
पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुरि न लागै डार।।
मानुष जन्म नर पायके, चूके अबकी घात।
जाय परे भव चक्र के, सहे घरेरी लात॥
मानूष तेरा गुण बड़ा, माँस न आवै काज।
हाड़ न होते आभरण, त्वचा न बाजत बाज॥
मानुष तै बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि न मान।
बार-बार बन कूकुही, गर्भ धरे ओ ध्यान॥
मानुष है के ना मुवा, मुवा सो डॉगर ढोर।
एकौ जीव ठौर नहि लागा, भया सो हाथी घोर॥
माया के झक जग जरे, कनक कामिनी लाग।
कहहि कबीर कस बॉचिहो, रुई लपेटी आग॥
माया केरी बसि परे, ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
नारद, शारद, सनक, सनन्दन, गौरी-पूत गणेश॥
माया जग सापिनि भई, विष ले पैठि पताल।
सब जग फन्दे फन्दिया, चले कबीरू काल॥
माया तजे तो क्या भया, जो मान तजा नहि जाय।
जेहि माने मुनिवर ठगे, सो मान सकल को खाय॥
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया शरीर।
आशा तृष्णा न मुई, यों कहि गये कबीर॥
मारग तो यह कठिन है, वहाँ कोई मत जाव।
गये ते बहुरे नहीं, कुशल कहै को आव॥
मारी मरे कुसंग की, केरा साथे बेर।
वै हालैं वै चीथरे, विधिना संग निबेर॥
माला पहाँ कुछ नहीं, भगति न आई हाथ।
माथौ मूंछ मुड़ाइ करि, चल्या जगत के साथ॥
माला पहिरै मनमुषी, ताथै कछू न होइ।
मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोई॥
माली भानु किसान सम, नीति निपुन नरपाल।
प्रजा भाग बस होहिगे, कबहुँ - कबहुँ कलिदास॥
माषी गुड़ पै गड़ि रही, पंख रही लपटाय।
ताली पीटै सिरि धुने, मीठे बोई माइ॥
मिटे न भारत की धरती से, नारी का सम्मान।
ऐसे निज आचरण बनाओ, ऋषियों की सन्तान॥
मिथ्याभाषी साँच हूँ, कहै न माने कोय।
माँड पकरे पीर पर, मिस समुझे सब कोय॥
मिलकर करें प्रयास, हमें परिवर्तन लाना है।
यदि हो गये निराश, नहीं कुछ होना जाना है॥
मिला हमें जो अतुलित वैभव, गुरुवर के अनुदान का।
गुरु पूर्णिमा पर्व आज है, उसके ही प्रतिदान का॥
मिले गुरु से अनुदान उदार, पिया जी भर कर माँ का प्यार।
कि जीवन भर इस एहसान को हम भुला न पायेंगे।।
मीत न नीति गलीत है, जो धन धरिये जोरि।
खाये खरचे जो बचै, तौ जोरिये कड़ोरि॥
मुक्त गगन में मुक्त पवन में, आज तिरंगा लहराया।
धरती विहँसी आशा विकसी, जन-जन का मन हरषाया॥
मुख की मीठी जो कहै, हृदया है मति आन।
कहहि कबीर ता लोगन, से तैसेहि राय सयान॥
मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक।
पालै पोषै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
मुझमें राम तुझमें राम, सब में राम समाया।
करलो सबसे प्रेम जगत में, कोई नहीं पराया।।
मझे चाहिए और कुछ भी न भगवन्।
तुम्हारी शरण की मुझे कामना है॥
मुनि नारी पाषान ही, कपि पशु गुह मातंग।
तीनों तारे रामजू, तीनों मेरे अंग॥
मुसीबत कितनी ही आये, नाम मत रुकने का लेना।
हृदय में रखना दृढ़ विश्वास, ज्योति कुछ दुनिया को देना॥
मूक होइ वाचाल, पंगु चढ़इ गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवउ सकल कलि मल दहन॥
मूड़ चढ़ाये हु रहै, परयो पीठ कच-भार।
रहै गरे परि राखिये, तऊ हिये पर हार॥
मूढ़ कर्मिया मानवा, नख-शिख पाखर आहि।
बाहन हारा क्या करे, जो बान लागे ताहि॥
मूढ़ मंडली में सजन, ठहरत नहीं बिसेखि।
स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजियत देखि॥
मूरख के सिखलावते, ज्ञान गौठि का जाय।
कोइला होय न ऊजरा, जो सौ मन साबुन लाय॥
मूरख को हित के वचन, सुनि उपजत है कोप।
साँपहि दूध पिवाइये, बाढ़े मुख विष ओप॥
मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ।
कदली, सीप, भुजंग, मुख, एक बूंद तिहँ भाइ॥
मूरख सो क्या बोलिये, शठ सो काह बसाय।
पाहन में क्या मारिये, जो चोखा तीर नसाय॥
मूवा है मरि जाहुगे, मुवे कि बाजी ढोल।
सपन सनेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल॥
मृत्युंजय की सुता रूपधर, जन मंगल हित आई।
शशि शेखर ने वापस , अपनी मंदाकिनी बुलाई।।
मेरा देश, मेरा देश, मेरा देश, मेरा देश।
प्यार मोहब्बत का देता है, दुनिया को संदेश॥
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मोर॥
मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, श्याम हरित-दुति होय॥
मेरे वंशज मेरी सन्तान, जहाँ कहीं भी तुम रहो।
मेरी आवाज मेरा ही स्वर, सदा अनुभव करोगे॥
मेरे गुरुदेव चरणों में, समन श्रद्धा के अर्पित हैं।
तेरी ही देन है जो है, वही चरणों में अर्पित है॥
मेरे रक्षक मेरे स्वामी, सभी का त्राण करते हैं।
तेरे चरणों में आकर हम, सभी गुणगान करते हैं।।
मेरे संगी दोई जणा एक, वैष्णौ एक राम।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम॥
मैं एक शून्य में अगम सिन्धु, मैं नीलकंठ हूँ विषपाई।
मेरे वेदों की अमर कीर्ति, सारे तीर्थ लोक में लहराई॥
मैं चाहती अगणित स्वरों में, विश्व को यह दूँ बता।
इन्सान मेरा देवता, इन्सान मेरा देवता॥
मैं चितवत हूँ तोहि को, तू चितवत कछु और।
लानत ऐसे चित्त पर, एक चित्त दुइ ठौर॥
मैं चितवत हूँ तोहि को, तू चितवत है वोहि।
कहहि कबीर कैसे बनि है, मोहि, तोहि और वोहि॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के वतन में॥
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहै घेरि।
जब ही चालै पीठि दे, अंकुस दै दै फेरि॥
मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि।
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि॥
मैं रोवों यह जगत को, मोको रोवों न कोय।
मोको रोवे सो जना, जो शब्द विवेकी होय॥
मै साथ तुम्हारे रहता हूँ, पहचान सको तो पहचानो।
मैं सबका परम हितैषी हूँ, चाहे मानो या ना मानो॥
मैं सच्चे पथ का राही हूँ, कह सकता दिन को रात नहीं।
ईमान बेच दूं टुकड़ों पर, यह मेरे बस की बात नहीं॥
मैं साथ तुम्हारे रहता हूँ, चाहे मानो या ना मानो।
मैं सबका परम हितैषी हूँ, चाहे मानो या ना मानो॥
मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ।
बिन चादर भी आ पाने की, शक्ति कहाँ से लाऊँ॥
मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसो, सदा बिहारी लाल॥
मोर मुकूट की चन्द्रिकनि, यौं राजत नन्द-नन्द।
मनु ससिशेखर के अकस, किय शेखर सतचन्द॥
मोर-मोर सब कहँ कहसि, तू को? कह निज नाम।
कै चुप साधहि सुनि समुझि, कै तुलसी जपु राम॥
मो सम दीन न दीन-हित, तुम्ह समान रघुवीर।
अस विचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भव भीर॥
मोहनि मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोय।
बसति सुचित अनतर तऊ, प्रतिबिंबित जग होय॥
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